पंकज कुमार श्रीवास्तव
‘आमरा मोरबो,देश जागबे’यानि कि‘हम अपनी जान देंगे,तभी देश जागेगा’का नारा देने वाले बाघा जतीन (07दिसम्बर,1879-10सितम्बर, 1915) के बचपन का नाम जतीन्द्रनाथ मुखर्जी(जतीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय)था।
कोलकाता पुलिस के डिटेक्टिव डिपार्टमेंट के हेड और बंगाल के पुलिस कमिश्नर रहे चार्ल्स टेगार्टने कहा था- “अगर बाघा जतिन अंग्रेज होते तो उनकी मूर्ति लंदन ट्रेफलगर स्क्वायर पर लगती.”
जतीन्द्र नाथ मुखर्जी का जन्म जैसोर जिले में सन् 1879ई में हुआ था।पाँच वर्ष की अल्पायु में ही उनके पिता का देहावसान हो गया था। माँ ने बड़ी कठिनाई से उनका लालन-पालन किया।18वर्ष की आयु में उन्होंने मैट्रिक पास कर जीविकोपार्जन हेतु स्टेनोग्राफी सीखकर कलकत्ता विश्वविद्यालय से जुड़ गए।
वह बचपन से बड़े बलिष्ठ थे।बात 1906 की है.जतिन अपने गांव गए हुए थे.पता चला कि गांव के आसपास एक बाघ घूम रहा है.बाघ मवेशियों को ना मार दे.इसलिए गांव के लड़कों ने एक टोली बनाई और बाघको खदेड़ने पहुंच गए.इतने लोगों को सामने से आता देख बाघ ने टोली पर हमला कर दिया.इनमें से एक जतिन का चचेरा भाई भी था.भाई को मुसीबत में देख जतिन बाघ के ऊपर चढ़ बैठे.कुछ देर,चले संघर्ष में बाघने जतिन को लहूलुहान कर डाला.तभी जतिन को याद आया कि उनकी कमर में एक खुकरी है.जतिन ने खुकरी निकाली और बाघ के सीने में दे मारी.बाघ वहीं ढेर हो गया.
इस मुठभेड़ में जतिन को भी काफ़ी चोट आई थी. उनका इलाज किया ले.कर्नल डॉक्टर सर्बाधिकारी ने. डॉक्टर सर्बाधिकारी को बाघ से मुठभेड़ का पता चला तो उन्होंने इंग्लिश प्रेस में ये किस्सा छपवा दिया.साथ ही इंडियन सोल्जर्स की एक बटालियन का नाम भी जतिन के नाम पर रख दिया.तब से जतिन का नाम हो गया, बाघा जतिन.
अब एक दूसरी कहानी सुनिए।रेलवे स्टेशन पर एक आदमी दौड़ा चला जा रहा है.उसके हाथ में पानी है, जिसकी उसके बीमार दोस्त को ज़रूरत है.दौड़ते-दौड़ते वो एक ब्रितानिया ऑफ़िसर से टकरा जाता है. ऑफ़िसर के मन में भारतीयों के लिए नफ़रत और कमर में एक ˈबैटन थी.उसने आव देखा ना ताव,उस आदमी पर बैटन से कई प्रहार किए.किसी की हिम्मत नहीं थी कि उससे कुछ कह सके.सो अंग्रेज ऑफ़िसर मारने के बाद मुड़कर जाने लगा.तभी उसे अपने कंधे पर एक हाथ महसूस हुआ.ऑफ़िसर को लगा,किसी अंग्रेज साथी ने हाथ रखा होगा.मुड़कर देखा तो ये एक भारतीय का हाथ था.उसने अंग्रेज ऑफ़िसर से सवाल पूछा,‘तुमने उस बेचारे को मारा क्यो,उसकी क्या गलती थी?’
अंग्रेज ऑफ़िसर को ऐसे सवालों की आदत नहीं थी. उसने अपने तीन और साथियों को बुला लिया.लड़ाई शुरू हो गई-एक भारतीय और 4अंग्रेज.उस अकेले भारतीय ने 4अंग्रेजों को धूल चटा दी,
जब इस आदमी को अदालत में पेश किया गया तो बयान देने एक भी गवाह सामने नहीं आया.कारण- अंग्रेज प्रचार नहीं करवाना चाहते थे कि एक भारतीय ने चार अंग्रेजों को पटखनी दी थी.
उन्हीं दिनों अंग्रेजों ने बंग-भंग की योजना बनायी। बंगालियों ने खुल कर इसका विरोध किया।बाघा जतिन का खून खौलने लगा।उन्होंने साम्राज्यशाही की नौकरी को लात मार कर आन्दोलन की राह पकड़ी। सन् 1910 में एक क्रांतिकारी संगठन में काम करते वक्त यतींद्र नाथ ‘हावड़ा षडयंत्र केस’ में गिरफ्तार कर लिए गए और उन्हें साल भर की जेल काटनी पड़ी।
जेल से मुक्त होकर वह’अनुशीलन समिति’ के सक्रिय सदस्य बन गए और ‘युगान्तर’ संगठन का कार्य संभालने लगे।उन्होंने अपने एक लेख में लिखा था-
‘पूंजीवाद समाप्त कर श्रेणीहीन समाज की स्थापना क्रांतिकारियों का लक्ष्य है।देसी-विदेशी शोषण से मुक्त कराना और आत्मनिर्णय द्वारा जीवनयापन का अवसर देना हमारी मांग है।’
इन डकैतियों में ‘गार्डन रीच’ की डकैती बड़ी मशहूर मानी जाती है।इसके नेता यतींद्र नाथ मुखर्जी थे।विश्व युद्ध प्रारंभ हो चुका था।कलकत्ता में,उन दिनों राडा कम्पनी बंदूक-कारतूस का व्यापार करती थी।इस कम्पनी की एक गाडी रास्ते से गायब कर दी गयी जिसमें क्रांतिकारियों को 52माउजर पिस्तौलें और 50हजार गोलियाँ प्राप्त हुई थीं।ब्रिटिश हुकूमत को ज्ञात हो चुका था कि ‘बलिया घाट’ तथा ‘गार्डन रीच’ की डकैतियों में यतींद्र नाथ का हाथ था।
उनकी सोच अपने समय से बहुत आगे थी.कॉलेज में पढ़ते हुए,उन्होंने सिस्टर निवेदिता के साथ राहत-कार्यों में भाग लेने लगे.सिस्टर निवेदिता ने ही उनकी मुलाकात स्वामी विवेकानंद से करवाई.विवेकानन्द ने ही जतिंद्रनाथ को एक उद्देश्य दिया और मातृभूमि के लिए कुछ करने के लिए अभिप्रेरित किया.उन्हीं के मार्गदर्शन में जतिंद्रनाथ ने उन युवाओं को आपस में जोड़ना शुरू किया जो आगे चलकर भारत का भाग्य बदलने का जुनून रखते थे.
इसके बाद वे श्री अरबिंदो के सम्पर्क में आये.अरबिंदो और उनके भाई ने एक पार्टी बनाई हुई थी-नाम था जुगांतर पार्टी.यह संस्था नौजवानों में बहुत मशहूर थी.जुगांतर की कमान जतिन ने स्वयं संभाली.उनसे प्रेरित होकर बहुत से युवा युगांतर पार्टी में शामिल हुए.युगांतर के चर्चे भारत के बाहर भी होने लगे.अन्य देशों में रह रहे क्रांतिकारी भी इस पार्टी से जुड़ने लगे.यह क्रांति भारत तक सीमित नहीं थी,पूरे विश्व में अलग-अलग देशों में रह रहे भारतीयों को जोड़ चुकी थी.बाघा जतिन ने’पूर्ण स्वराज’ प्राप्त करने के लिए सशस्त्र प्रयास में कोई हिचक नहीं दिखाई.वे बंगाल, बिहार,उड़ीसाऔर संयुक्त प्रांत के क्रांतिकारियों से संपर्क स्थापित करने में लग गये.
27जनवरी,1910 को पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार किया गया था,लेकिन उनके खिलाफ़ कोई ठोस प्रमाण न मिलने के कारण कुछ दिनों के बाद छोड़ दिया गया. जेल से रिहाई के बाद,बाघा जतिन ने राजनीतिक विचारों और विचारधाराओं के एक नए युग की शुरूआत की.
1912में बंगाल में भीषण बाढ़ आई.जतिन बाढ़पीड़ितों की मदद में लग गए.उनकी मुलाक़ात हुई रासबिहारी बोस से.दोनों ने तय किया कि अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने के लिए पूरे भारत में क्रांति की ज़रूरत है.
इसके बाद आंदोलनकारियों के दो धड़े बनाए गए. उत्तर भारत में कमान सम्भाली रास बिहारी बोस ने, और पूर्व में जतिन के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आंदोलन जारी रखा.बंगाल में क्रांतिकारी रोज़ किसी नई घटना को अंजाम दे रहे थे.अंग्रेज़ अपनी राजधानी कलकत्ता से उठाकर दिल्ली ले गए,उसकी एक बड़ी वजह बंगाल की क्रांति थी.
बर्लिन में एक इंटरनैशनल प्रो इंडिया कमिटी का गठन किया गया.इसका नेतृत्व कर रहे थे वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय.वीरेंद्र के अमेरिका की ग़दर पार्टी और भारत में युगांतर पार्टी से सम्बंध थे.1915में उत्तर भारत में ग़दर पार्टी और रास बिहारी बोस के नेतृत्व में एक म्यूटिनी की कोशिश हुई,जिसे अंग्रेजों ने दबा दिया.
जिस समय नॉर्थ इंडिया में म्यूटिनी हुई.जतिन ने कोलकाता के फ़ोर्ट विलियम्स कॉलेज में डेरा जमाया हुआ था.वो हथियारों के कंसाइनमेंट का इंतज़ार कर रहे थे.उत्तर भारत में म्यूटिनी की कोशिश हुई तो अंग्रेजों ने बंगाल में भी धरपकड़ शुरू कर दी.अंग्रेजों की दबिश से बचने के लिए जतिन अपने 4साथियों के साथ बालासोर,उड़ीसा पहुंच गए.
दरअसल प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटेन और जर्मनी की लड़ाई चल रही थी.जर्मनों को लगा कि अगर वो भारत में आज़ादी के आंदोलन को हवा देंगे तो ब्रिटेन को झटका लगेगा. इसी के तहत एक जर्मन क्राउन प्रिंस ने भारत दौरे पर जतिन से मुलाक़ात की.जतिन क्रांतिकारियों का नेतृत्व कर रहे थे.क्राउन प्रिंस ने जतिन को भरोसा दिलाया कि जर्मनी क्रांतिकारियों को हथियारों की सप्लाई करेगा.कोलकाता के तट पर अंग्रेजों ने ज़बरदस्त पहरा दिया हुआ था.उन्हें जर्मन और भारतीय क्रांतिकारियों के गठजोड़ की भनक लग चुकी थी.इसीलिए जतिन ने आगे के आंदोलन के लिए उड़ीसा को चुना क्योंकि उड़ीसा के तट पर जर्मन हथियारों की सप्लाई हो सकती थी.
उड़ीसा पहुंचकर उन्होंने यूनिवर्सल इम्पोरियम नाम की एक दुकान खोली. यहां से वो बर्लिन की प्रो इंडिया कमिटी से सम्पर्क कर सकते थे.तय हुआ कि दो जर्मन जहाज़ उड़ीसा के तट पर पहुंचेंगे.एनी लारसन और मेवरिक नाम के दो जहाज़ हथियार लेकर भारत की तरफ़ निकले.लेकिन तट पर पहुंचने से पहले ही अंग्रेजों को इसकी खबर लग गई और उन्होंने हथियारों समेत दोनों जहाज़ों को अपने कब्जे में ले लिया. प्लान फेल हो चुका था. जतिन को इसकी खबर लगी तो उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा-ये घटना हमें कुछ संकेत दे रही है.आज़ादी अंदर से आती है,बाहर से नहीं’लेकिन,जतिन को अहसास नहीं था कि ग़द्दारी भी अंदर से ही आती है.किसीने जतिन के ठिकाने का पता अंग्रेजों को बता दिया.पुलिस उनके दरवाज़े तक पहुंच गई.जतिन वहां से फ़रार हो चुके थे.
पुलिस से बचने के लिए जतिन अपने 4साथियों के साथ पैदल निकल गए.मुख्य रास्तों को अवॉइड करने के लिए उन्होंने कीचड़ भरे खेतोंको पार किया.उड़ीसा में एक नदी बहती है-बुदी बालम.एक रात,वो उसके तट पर फ़ंस गए तो उन्होंने मानसून में उफनती नदी को पार किया.इस दौरान पुलिस लगातार उनका पीछा कर रही थी.ख़तरनाक रास्तों को पार करते हुए वो बालासोर में चाशाखंड क्षेत्र के पास एक मैदान में पहुंचे.उसे अपना फ़ाइनल वॉर ग्राउंड बना लिया.
पांचों क्रांतिकारी एक चट्टान की ओट लेकर छुप गए, उन दिनों माउज़र पिस्तौलों के साथ एक लकड़ी का हत्था लगा होता था. उसकी टेक लगाकर उन्होंने उसे राइफ़ल की तरह सेट कर दिया. पुलिस पहुंची तो दोनों तरफ़ से गोलियां चलने लगी.इस लड़ाई को ‘बैटल ऑफ़ बालेश्वर’ के नाम से जाना जाता है. जो डेढ़ घंटे चली मुठभेड़ में जतिन का एक साथी शहीद हो गया.इनका नाम था चित्ताप्रिया रे चौधरी.जतिन के पेट में भी एक गोली लग गई थी.मौत को नज़दीक देख उन्होंने अपने बाकी साथियों से कहा कि वो सरेंडर कर दें.जतिन को बालासोर हॉस्पिटल ले जाया गया. जहां उन्होंने अगले ही दिन दम तोड़ दिया. उस वक्त उनकी उम्र सिर्फ़ 35 वर्ष थी